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डॉ गुलशन सचदेवा
(एसोसिएट प्रोफेसर, सेंटर फॉर यूरोपियन स्टडीज , जेएनयू )
अमेरिका के नेतृत्व वाले इराक और अफगानिस्तान के युद्ध में अंकल सैम यानी अमेरिका ने दबाव डालकर यूरोपीय देशों को भी शामिल कर लिया। लेकिन, वर्तमान में लीबिया पर हमले की अगुवाई यूरोपीय देश कर रहे हैं। अफगानिस्तान में फीके प्रदर्शन के बाद यूरोप को अपनी सामरिक ताकत दिखाने का अवसर भी मिल गया है। शुरुआती हिचकिचाहट के बाद अमेरिका भी इनके साथ पूरे उत्साह से सामरिक कार्रवाई में जुट गया है।
लीबिया रणनीतिक दृष्टिकोण से यूरोप के लिए अधिक महत्वपूर्ण है। यूरोपीय संघ के तट से यह महज 356 किमी दूर है। 90 प्रतिशत लीबिया का तेल यूरोप जाता है। इस हस्तक्षेप के द्वारा यूरोप अरब जगत में चल रही बदलाव की बयार को और प्रभावित करने की कोशिश करेगा।
हालांकि लीबिया पर हमले की कार्रवाई के मसले पर पूरे यूरोपीय संघ में अंतर्विरोध साफ तौर पर दिखाई दिए। लीबिया को ‘नो फ्लाई जोन’ घोषित करने संबंधी संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव 1973 का जर्मनी ने विरोध करते हुए उसके समर्थन में वोट देने से इंकार कर दिया। इसके बजाय उसने भारत, रूस और चीन के साथ प्रस्ताव के दौरान गैर हाजिर रहना उचित समझा। इटली भी इस सैन्य कार्रवाई से बेहद चौकन्ना हो गया है। उसको डर है कि कहीं बड़े पैमाने पर लीबियाई शरणार्थी इटली में न प्रवेश कर जाएं।
बुल्गेरिया के प्रधानमंत्री ने लीबिया पर हमले को तेल हितों के लिए उठाया गया जोखिम कहा। यहां तक कि नाटो की भूमिका पर फ्रांस और ब्रिटेन भी एक दूसरे से सहमत नहीं हैं। फ्रांस इस ऑपरेशन को स्वतंत्र रूप से अंजाम देने का पक्षधर था, जबकि ब्रिटेन सैन्य कमान नाटो को हस्तांतरित करने का पक्षधर था। हालांकि बाद में अमेरिकी दबाव में फ्रांस को भी इस ऑपरेशन की कमान नाटो को सौपने के संबंध में अपनी स्वीकृति देनी पड़ी।
लीबियाई युद्ध के बहाने प्रमुख यूरोपीय शक्तियां मध्य-पूर्व के बदलते हालात में अहम भूमिका निभाने की इच्छुक हैं। इस स्थिति ने यूरोप की एक समान विदेश नीति के लिए संकट उत्पन्न कर दिया है। करीब एक साल पहले यूरोपीय कूटनीतिक सेवा की शुरुआत हुई थी उसके बावजूद एक बार फिर यूरोप एक ही मसले पर विभाजित है। उसमें एकता दिखती नहीं प्रतीत होती है। जिसके चलते यूरोप के सुर बिखरे हुए हैं। इससे यूरोपीय संघ की विदेश और सुरक्षा नीति पर दूरगामी विपरीत असर पड़ेगा, जिसके तहत वह वैश्विक मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने की योजना बना रहा है।
बदलती निष्ठाओं का अंतद्र्वंद्व है यह युद्ध
सुबोध नारायन मालाकार
(चेयरमैन, सेंटर फॉर अफ्रीकन स्टडीज, स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू)
उत्तरी अफ्रीका में अवस्थित लीबिया ट्यूनीशिया और मिस्न के बाद तीसरा देश है जहां राजनीतिक उथल-पुथल और तानाशाही शासन के खिलाफ जन आंदोलन मुखर हो उठा है। लेकिन लीबिया कई मायनों में ट्यूनीशिया और मिस्न से भिन्न है। लीबिया में तेल के आधिक्य और कुछ ऐतिहासिक कारणों खासकर यूरोप और अमेरिका से इसके भिन्न संबंधों के चलते यहां की ताजा हलचल औरों से अलग है। 42 वर्ष पहले राजतंत्र के खिलाफ गद्दाफी का विद्रोह एक सकारात्मक कदम होने के कारण पूर्व सोवियत संघ इनका गहरा मित्र रहा। 1975 में राजनीतिक विचारों पर आधारित कर्नल गद्दाफी द्वारा लिखित किताब ‘ग्रीन बुक’ दुनिया के प्रत्येक हिस्से में प्रगतिशील और अमेरिका विरोधी स्वर के लिए प्रसिद्ध हुई। कालान्तर में जब 1990-91 में सोवियत संघ का विघटन हुआ तब कर्नल का झुकाव अमेरिका की तरफ हुआ और वक्ती जरूरत ने उसे अमेरिका का भक्त बना दिया। अब गद्दाफी ने पूर्व में सोवियत संघ की मदद से निर्मित लीबिया के तमाम नाभकीय संयत्रों बंद कर दिया तथा उसे खुद ढोकर अमेरिका पहुंचा दिया।
गद्दाफी शुरू से ही काफी चालाक तानाशाह था। उसने लीबिया में सैनिक संरचना का निर्माण न कर अपने लिए ऐसे सुरक्षा गार्डों का समूह बनाया जो लीबियाई न होकर अफ्रीकी मिशनरी थे। यह सुरक्षा गार्ड लीबिया से बाहर के थे। तानाशाह ने इनको अपना गार्ड बनाया जिससे भविष्य में किसी भी जन आन्दोलन को कुचलने में मदद मिल सके। गद्दाफी ने अपने और अपने परिवार को लीबिया की तेल सम्पदा और अन्य आर्थिक स्नोतों का मालिक बना दिया। लीबियाई समाज में बेरोजगारी और गरीबी तेजी से बढ़ती गई। अब तक आक्रोश से भरी वस्तुगत परिस्थिति तैयार हो चुकी थी। दूसरी तरफ लीबिया ने तेल की धार का रुख पश्चिम से हटाकर पूर्व की ओर चीन, भारत एवं अन्यत्र करना भी प्रारंभ कर दिया जो अमेरिका, फ्रांस इटली और ब्रिटेन को गवारा नहीं था।
विद्रोह के उठे स्वर ने पश्चिमी देशों और अमेरिका को एक मौका दिया जिसके परिणाम स्वरूप नाटो के नेतृत्व में इन देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्दर समर्थन प्राप्त कर हमला कर दिया। रूस, चीन, भारत वेनेजुएला बाद में अरब लीग ने भी लीबिया पर इस हमले का विरोध किया है। अब दिनों दिन गद्दाफी की शक्ति क्षीण होती जा रही है। कुछ सप्ताह में गद्दाफी की सत्ता समाप्ति की संभावना बन चुकी है। लेकिन नाटो और पश्चिम के नियंत्रण को लीबियाई जनता कैसे देखेगी यह एक मुख्य सवाल है।
आखिर लीबिया पर क्यों आया लालच
ओपेक का सदस्य देश लीबिया हर दिन 16.9 लाख बैरल तेल का उत्पादन करता है। इस उत्पादन में से 14.9 लाख बैरल का निर्यात करता है। जिन देशों ने यहां हमला कर रखा हैं उनकी ऊर्जा जरूरतें यहीं के निर्यात से पूरी होती है। अकेले यूरोप में लीबिया से 85 फीसदी कच्चे तेल का निर्यात किया जाता है।
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साभार : दैनिक जागरण 27 मार्च 2011 (रविवार)
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