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निवाले को लाले!
दुनिया की खाद्य प्रणाली संकट में है। 1984 से खाद्य पदार्थों की कीमतें ऐतिहासिक रूप से अपने शीर्ष पर हैं। कई देशों में चल रही उठा-पटक और प्राकृतिक आपदाएं खाद्य पदार्थों की कीमतों में और इजाफा करने वाली रही हैं। महंगाई के चलते लाखों लोग हर रात भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। चार साल के भीतर सर्वाधिक महंगाई का यह दूसरा दौर है। सभी लोगों को भोजन सुनिश्चित करने के लिए जहां विकसित देशों के संगठन जी-8 के साल 2011 के एजेंडे में खाद्य सुरक्षा शीर्ष पर है वहीं भारत जैसे कई देश भी इस समस्या की काट खोजने में लगे हैं। देश में खाद्य सुरक्षा विधेयक पर बहस जारी है लेकिन इसमें भी केवल गरीब तबकों की क्षुधापूर्ति सुनिश्चित करने की बात कही जा रही है। औरों का क्या होगा? हम अभी दुनिया के सात अरब लोगों की भूख उचित तरीके से मिटा नहीं पा रहे हैं तो 2050 में नौ अरब की क्षुधा कैसे शांत होगी?
डॉ. मंगला राय
(भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पूर्व महानिदेशक)
खाद्यान्न की जरुरतों के बारे में आकलन बिल्कुल तार्किक नहीं है। लोगों की क्रय क्षमता कम होने से ज्यादातर लोग जरूरत भर खाद्यान्न का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। देश के अनेक इलाकों में लोग भूखे पेट सोने को बेबस हैं। ऐसे में बफर स्टॉक और खाद्यान्न भंडार का कोई औचित्य नहीं है। खाद्य सुरक्षा कानून लाने से पहले पैदावार बढ़ानी होगी। इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है। इस देश में पिछले 40 साल में खेती योग्य भूमि में इंचभर की बढ़ोतरी नहीं हुई है। 1971 में भी देश में कुल खेती योग्य भूमि 14 करोड़ हेक्टेयर थी और 2011 में भी उतनी ही है। जबकि आबादी बढ़कर दोगुनी हो गयी है।
फसलों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए भी सीमित विकल्प हैं। पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश में जमीन की उर्वरता चुकने की कगार पर है। पूर्वी राज्यों में जहां संभावनाएं हैं, अब सरकार वहां दूसरी हरितक्रांति के नाम पर लोगों के साथ मजाक कर रही है। छह राज्यों में जहां हरितक्रांति चलायी जानी चाहिए, वहां के लिए पिछले साल की तर्ज पर इस बार भी बजट में 400 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। यह तो ‘जलते तवा पर पानी की बूंद डालने’ जैसा होगा।
खेती में धेलाभर का निवेश नहीं हो रहा है। उचित नीतियां नहीं बन रही हैं। यहां जूता एयरकंडीशन शोरूम में बिकता है और सब्जी, दूध, फल, मीट और मछली फुटपाथ पर। जल्दी खराब होने वाले इन खाद्य पदार्थों के लिए कोल्ड स्टोरेज न होने से इनकी 30 फीसदी मात्रा नष्ट हो जाती है। खाद्यान्न भंडारण के लिए पिछले दो दशकों में कोई प्रयास नहीं किया गया है। निजी क्षेत्रों के साथ मिलकर निवेश के प्रस्ताव फाइलों तक सीमित रहे। खेती के उद्धार के लिए कृषि आधारित उद्योग को बढ़ावा देना होगा।
कृषि प्रसार की पूरी प्रणाली ध्वस्त हो चुकी है। कृषि क्षेत्र में अनुसंधान करने वाले विश्वविद्यालयों व संस्थानों के बुरे हाल का खामियाजा देश को भुगतना पड़ेगा।
दीर्घकालिक नीतियां बनाए बगैर खाद्य सुरक्षा की बात नहीं सोची जा सकती है। खेती को सुधारने के लिए सालाना 30 से 40 हजार करोड़ रुपये का निवेश करना होगा। प्रत्येक वर्ष कम से कम 10 से 20 लाख हेक्टेयर बंजर भूमि को खेती लायक बनाना होगा। 2.5 करोड़ हेक्टेयर भूमि अम्लीय होने के चलते अनुपजाऊ है, जबकि 70 लाख हेक्टेयर भूमि ऊसर है।
खेती के लिए अत्यंत जरूरी सिंचाई के क्षेत्र को उसके हाल पर छोड़ दिया गया। आलम यह है कि देश की 65 फीसदी खेती आज भी बारिश के भरोसे होती है। बारिश के 29 फीसदी पानी का संरक्षण होता है, जबकि सिंचाई में केवल 25 फीसदी ही उपयोग होता है। बजट में खेती पर पहले 0.6 फीसदी खर्च होता था, वही आज भी है। इसीलिए सरकार महंगाई के मोर्चे पर फेल है। प्रधानमंत्री व वित्त मंत्री कितना भी कहें, महंगाई कोढ़ की तरह लगी रहेगी। इससे पार पाने के लिए खेती की मूलभूत जरूरतों को समझना होगा।
भुखमरी में हम अफ्रीका जैसे देशों से भी बुरे हाल में हैं। तब भी सरकार खाद्य सुरक्षा विधेयक लाने की बात करती है। दुनियाभर में खाद्य सुरक्षा के मायने स्वस्थ रहने के लिए जरुरी वस्तुओं को उपलब्ध कराना होता है। सिर्फ सस्ता अनाज दिलाने से बात नहीं बनती है। इसमें स्वास्थ्य के लिए जरूरी पोषक तत्व और पूर्ण स्वच्छता के साथ स्वच्छ पानी उपलब्ध कराना भी शामिल है। जो विधेयक लाया जा रहा है, उसमें तो अनाज की कुछ मात्रा सस्ती दर में उपलब्ध कराना है। अरे, इस देश में अभी गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या तक का पता नहीं है। यहां गरीबी की परिभाषा तक नहीं तय की गयी है।
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साभार : दैनिक जागरण 20 मार्च 2011 (रविवार)
मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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