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संयुक्त राष्ट्र द्वारा परिभाषित गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या भारत में 41 करोड़ है। यह संख्या उन लोगों की है जिनकी एक दिन की आमदनी 1.25 डॉलर से भी कम है
• ’खाद्य सुरक्षा विधेयक में प्रावधान है कि हर महीने गरीबों को 25 किग्रा अनाज को तीन रुपये प्रति किलो की सस्ती दर पर उपलब्ध कराया जाएगा। हालांकि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सुझाव दिया है कि हर माह दिए जाने वाले अनाज की यह मात्रा बढ़ाकर 35 किग्रा की जानी चाहिए.
• ’परिषद ने यह भी सुझाव दिया है कि शुरू में इस योजना को देश के 150 पिछड़े जिलों में चलाया जाए और बाद में इस सब्सिडी को पूरे देश में लागू किया जाए.
वित्तीय प्रभाव
• ’सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत सरकार कम आय या गरीब तबके के 18 करोड़ परिवारों को अनाज उपलब्ध करा रही है। मार्च 2011 को खत्म हुए वित्तीय वर्ष में सरकार द्वारा इस मद में करीब 12 अरब डॉलर खर्च किए जाने का अनुमान है।
• ’यह धनराशि देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का एक प्रतिशत और कुल सरकारी खर्च का पांच प्रतिशत है.
• ’इस नई स्कीम को जोड़ देने से सब्सिडी का ज्यादा बोझ पड़ेगा और राजकोषीय घाटा बढ़ेगा। एक रिपोर्ट के मुताबिक यह अतिरिक्त बोझ करीब 1.27 अरब डॉलर के बराबर होगा जो जीडीपी का 1.1 प्रतिशत होगा.
भूख से बड़ी है संतुलित पोषण की समस्या
वर्तिका तिवारी
(न्यूट्रिशनिस्ट)
देश में पोषण का असंतुलन बड़ी समस्या है। यह समस्या गरीबी-अमीरी भी नहीं देखती। हमारे सामने पोषण को लेकर दोहरी चुनौती है। आबादी के जिस हिस्से की अब तक भूख ही नहीं मिट पा रही, उसके लिए अलग स्तर पर काम हो रहा है, लेकिन एक बड़ा तबका ऐसा भी है, जो भूखा तो नहीं रहता, लेकिन सिर्फ अपना पेट भरता है। उसे जरूरी पोषण नहीं मिल पा रहा। मोटापा भारत में महामारी के रूप में सामने आ चुका है। यह हमारे स्वास्थ्य ढांचे पर ही नहीं पूरी कार्य क्षमता पर बड़ा बोझ बन सकता है।
सिर्फ भूख मिटाने के लिए ऊर्जा या कैलोरी की ही जरूरत नहीं होती, बल्कि प्रोटीन, फैट, कैल्सियम और विटामिन सी, आयरन और जिंक जैसे माइक्रो न्यूट्रिएंट्स की भी उतनी ही जरूरत होती है। अपने यहां मैक्रो और माइक्रो न्यूट्रिएंट्स वाले आहार को भोजन में कम शामिल किया जाना एक बड़ी समस्या है। पिछले दो दशकों के दौरान आए सामाजिक-आर्थिक बदलाव ने इस स्थिति को और जटिल बना दिया है। नए संसाधनों की उपलब्धता ने लोगों के शारीरिक श्रम को काफी कम कर दिया है। इस वजह से उनकी ऊर्जा और आहार संबंधी जरूरत भी बदल गयी हैं ।
पोषण की कमी के साथ ही इसकी अधिकता भी समस्या बन गई है। इससे मधुमेह और दिल की बीमारियों का खतरा काफी बढ़ गया है। आहार में मौजूद फैट से ऊर्जा और एसेंशियल फैटी एसिड (ईएफए) की जरूरत पूरी होती है। लेकिन किसी वयस्क व्यक्ति के आहार में 30 फीसदी से ज्यादा फैट लिपिड प्रोफाइल को नुकसान पहुंचा कर दिल की बीमारी का खतरा बढ़ा देता है। आयरन की कमी के कारण होने वाली बीमारी एनीमिया भी एक बड़ी स्वास्थ्य समस्या है।
कितना अधिक है काफी!
सबकी भूख शांत करने के लिए जरूरी खाद्य पदार्थों की मात्रा की गणना करना भले ही आसान दिखता हो, मगर है नहीं। अध्ययन बताते हैं कि कई अकाल अनाज की कमी के चलते नहीं पडे़।
बंगाल के अकाल की सच्चाई !
नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन द्वारा 1981 में लिखे गए ‘गरीबी और अकाल’ शीर्षक लेख में 1943 में बंगाल में पड़े अकाल की वजह खाद्य पदार्थों की कमी पर सवाल खड़ा किया गया है। लेख के अनुसार तीस लाख लोगों को मौत की नींद सुलाने वाला यह अकाल कृषि पैदावार में किसी कमी के चलते नहीं हुआ था। भयावह अकाल के बावजूद उस दौरान देश से खाद्यान्नों का निर्यात जारी था। नतीजे में अकाल की वजह उन्होंने बुनियादी खाद्यान्नों की कमी की जगह वेतन, वितरण और लोकतंत्र को बड़ा कारक माना है।
तीन भारत का भरना होगा पेट
पूर्वाकलन के मुताबिक 2011 में दुनिया की सात अरब आबादी 2050 में बढ़कर नौ अरब हो जाएगी। लोगों की संख्या में यह बढ़ोतरी करीब भारत की दोगुनी जनसंख्या के बराबर है। यदि मौजूदा समय में भूखे रहने वाले लोगों की एक अरब आबादी को जोड़ लिया जाए तो 2050 में हमें 300 करोड़ यानी तीन भारत के बराबर की अतिरिक्त जनसंख्या की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी.
कृषि और जलवायु परिवर्तन
आइपीसीसी के अनुसार 13.5 फीसदी ग्र्रीन हाउस गैसे सीधे तौर कृषि से उत्सर्जित होती हैं। खेती के लिए कटती हरियाली से होने वाला उत्सर्जन 17.4 फीसदी अलग है। इस तरह कुल उत्सर्जन में करीब एक तिहाई ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए हमारी खेती जिम्मेदार है।
घाटे का सौदा
अत्यधिक मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना एक तरह से घाटे का सौदा है।
परती जमीन का उपयोग: 1960 से ही ज्यादा उत्पादन के चक्कर में अधिकांश जमीनों को खेत में तब्दील कर दिया जा रहा है। कई वन्य क्षेत्रों को खत्म कर दिया जा रहा है। जमीन तो बढ़ नहीं रही है लेकिन जनसंख्या वृद्धि जारी है। विश्व बैैंक के एक अध्ययन के मुताबिक दुनिया में 50 करोड़ हेक्टेयर ऐसी जमीन है जहां प्रति हेक्टेयर जनसंख्या घनत्व महज 25 व्यक्ति (रेगिस्तान, वर्षा वनों और अंटार्कटिक को छोड़कर) है। अभी दुनिया में कुल 1.5 अरब हेक्टेयर जमीन पर ही खेती की जा रही है। यदि नाम मात्र की आबादी घनत्व वाली जमीन पर भी खेती की जाए तो कुल खेती का रकबा एक तिहाई बढ़ जाएगा
जल बिन जीवन: अनमोल प्राकृतिक संसाधन पानी का खेती में खूब दुरुपयोग हो रहा है। हर साल दुनिया में पानी की खपत 4500 घन किमी है जिसमें 70 फीसदी खेतों की सिंचाई में उपयोग किया जाता है। जिसके कारण भू-जल स्तर तेजी से नीचे गिर रहा है। पंजाब में जल स्तर गिरने की स्थिति विकराल है। दुनिया की कई नदियां विलुप्त हो चुकी हैं । 2030 तक किसानों को करीब 45 फीसदी अधिक पानी की जरूरत होगी। 2050 तक कुल पानी की खपत में सिंचाई की हिस्सेदारी बढ़कर 90 फीसदी होने का अनुमान है। एफएओ के मुताबिक अगले 40 साल में सिंचाई तकनीक में अमूलचूल बदलाव के लिए दस खरब डॉलर के निवेश की आवश्यकता होगी
नाइट्रोजन की कमी: कृषि में की तीसरी आधारभूत लागत नाइट्रोजन इसकी सबसे बड़ी बाधा भी है। पैदावार बढ़ाने के नाम पर यह जमीन की उर्वरा शक्ति को नष्ट करता ही है साथ ही भूमिगत जल सहित कई चीजों को प्रदूषित करते हुए पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है। हालांकि उर्वरकों की बढ़ती कीमतों के चलते इनका प्रयोग किसानों के पहुंच से बाहर होता जा रहा है लेकिन सरकार द्वारा सब्सिडी देने वाले देश में कृषि पैदावार बढ़ाने के नाम पर घातक उर्वरकों का जमकर प्रयोग हो रहा है। अफ्रीका में औसतन 10 किग्र्रा उर्वरक प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल किया जाता है तो हमारे देश में इसके उपयोग की मात्रा औसतन 180 किग्र्रा प्रति हेक्टेयर है.
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साभार : दैनिक जागरण 20 मार्च 2011 (रविवार)
मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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