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बदलाव की जन हुंकार

मुद्दा
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आंदोलन : अरब और पश्चिम एशिया के कई देशों में बदलाव की आंधी चल रही है। निरंकुश सत्ता के खिलाफ अवाम हुंकार भर रहा है। लोग शासन और उसकी नीतियों से त्रस्त होकर सड़क पर उतर रहे हैं। इन आंदोलनों को सत्ता परिवर्तन की मांग के रूप में देखा जा रहा है।

आंधी: ट्यूनीशिया और मिस्न में सत्ताबदर करने के बाद अब बारी अन्य देशों की है। लीबिया में जनआंदोलन की यह चिंगारी शोला बनने को आतुर है। पिछले 40 साल से जारी तानाशाही को उखाड़ फेंकने को लोग प्रतिबद्ध दिख रहे हैं।

अवाम: काफी लंबे अर्से से सत्ता से चिपके इन राष्ट्राध्यक्षों के शासन में अवाम के हितों की अनदेखी की जा रही है। लोगों की बढ़ती तकलीफें आज नारों के रूप में बयां हो रही हैं। इन देशों की हलचल और इससे जुड़े भारतीय हित बड़ा मुद्दा हैं।

 

आकांक्षाओं का प्रदर्शन

ak ramakrishananए.के. रामाकृष्णन (प्रोफेसर, सेंटर फॉर वेस्ट एशियन स्टडीज, जेएनयू)

अरब जगत के ट्यूनीशिया, मिस्र, यमन, बहरीन और लीबिया जैसे देशों की जनता ने व्यापक राजनीतिक प्रदर्शनों से अपने नागरिक अधिकारों की एक नई इबारत लिख दी है जो देशों की राष्ट्रीय राजनीति को लोकतांत्रिक पद्धति की दिशा में पुनर्संरचित करना चाह रही है।

भारत को अरब जगत के बदलते राजनीतिक परिदृश्य को बेहतर तरीके से समझकर अपनी नीतियों को वहां की जन आकांक्षाओं के अनुरूप पेश करना होगा। अरब जगत की भविष्य की राजनीति हमारे लिए चिंता का विषय नहीं है बल्कि हमारा ध्यान वहां की लोकतंत्र की इच्छुक जन भावनाओं की ओर होना चाहिए। वहां पर तेजी से बदलते घटनाक्रम का हमारी अरब जगत की नीतियों पर प्रभाव पड़ेगा लेकिन हमारी लोकतंत्र के प्रति आस्था वहां की नई उभरती राजनीतिक व्यवस्था के साथ सामंजस्य बैठाने में कारगर साबित होगी।

अरब जगत में उबाल के हमें इन चार प्रमुख कारकों को पहचानने की जरूरत है
1. नवउदार आर्थिक रूपांतरण का लाभ आम जन तक नहीं पहुंचा.
2. विचार विमर्श का दायरा अरब जगत तक सीमित न रहकर अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में उभरना

3. नागरिकों की लोकतांत्रिक आकांक्षा एवं
4. जनआकांक्षा का सामूहिक राजनीतिक प्रदर्शन

इस लोकतांत्रिक क्रांति में प्रमुख रूप से युवाओं की भागीदारी और उनकी उन्मुक्त अंदाज में राजनीतिक आजादी की आकांक्षा सबसे प्रमुख बातों में से एक है। इसके पीछे यह कारण नहीं है कि अरब जगत की आबादी में इस वक्त सबसे बड़ा हिस्सा युवाओं का है बल्कि सड़ चुके, भ्रष्ट, दमनकारी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की इच्छाशक्ति क्रांति का प्रमुख कारण रही है। लंबी तानाशाही की परत के नीचे जो लावा उबल रहा था वह ट्यूनीशिया के जन आक्रोश से फट पड़ा जिसने भय के बंधनों को खोल दिया।

इंटरनेट, सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों मसलन फेसबुक, ट्विटर और सेटेलाइट चैनलों विशेष रूप से अल-जजीरा की वजह से लोगों को समूह के रूप में एकत्र होने में सहायता प्रदान की। यह कहना पर्याप्त नहीं होगा कि युवा आंदोलनकारी इस नए मीडिया का इस्तेमाल लोगों को एकत्र करने के लिए करते थे। यहां यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश के बावजूद इस नए मीडिया ने लोगों के बीच राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर बहस एवं विमर्श के लिए मंच प्रदान किया। जिससे एक नए लोकतांत्रिक राजनीतिक क्षितिज का आविर्भाव संभव हो सका।

मिस्र के संदर्भ में अगर होस्नी मुबारक की तुलना पूर्ववर्ती राष्ट्राध्यक्षों से की जाए तो होस्नी के पतन को आसानी से समझा जा सकता है। सबसे पहले नासिर के शासन की बात की जाए तो भले उनका शासन सैन्य चरित्र का था लेकिन राजशाही के खात्मे, औपनिवेशिक विरोध और अरब राष्ट्रवादी नीतियों की वजह से नासिर को जनता का अपार समर्थन मिला, जिससे उनके शासन को राजनीतिक वैधता भी मिली। उनके बाद अनवर सादात ने 1967 में इजरायल के पराजय के बाद 1973 में उसके खिलाफ जंग छेड़कर मिस्र के गौरव को बरकरार रखने की कोशिश की, जिसकी वजह से उनको जनसमर्थन मिला। सादात की इंफिताह यानी मुक्त आर्थिक नीतियों ने मिस्र और अमेरिका को एक दूसरे का करीबी सहयोगी बना दिया। इससे वहां की जनभावना में असंतोष पैदा हुआ। इसके अलावा इजरायल के साथ समझौते से मिस्र की जनता शासन से पूर्णतया कट गई और सत्ता को शक की निगाह से देखने लगी।

होस्नी मुबारक को न तो कभी नासिर जैसी लोकप्रियता मिली और न ही वह सादात की तरह बुद्धिमान थे। इसके अलावा उनके परिवारवाद को भी लोगों ने पसंद नहीं किया जिसने लोगों को उनके प्रति महान विद्रोह के लिए प्रेरित किया। मुबारक द्वारा जेल में डाले गए लोकतंत्र समर्थक और अकादमिक विद्वान साद इद्दीन इब्राहीम ने उनके शासन को जुमलूकिया (गणतंत्र और राजतंत्र का मिला जुला रूप) कहा है। अब सैन्य नेतृत्व द्वारा ऐसी राजनीतिक व्यवस्था सुनिश्चित किया जाना है जो विश्वसनीय लोकतंत्र की दिशा में आगे बढ़े।

अमीर-गरीब में बढ़ती खाई, बेरोजगारी, खाद्य वस्तुओं की कमी, कमजोर सार्वजनिक वितरण प्रणाली एवं वित्तीय असुरक्षा वर्तमान जन आक्रोश की वजह रही। माना जा रहा है कि यह आर्थिक की बजाए राजनीतिक कारणों से उपजा विद्रोह था लेकिन इसकी पृष्ठभूमि में कड़वी आर्थिक सच्चाईयां भी रही हैं।

यदि पांचवे एवं छठे दशक में राष्ट्रवादी विचारधारा ने अरब जगत को आपस में जोड़ा तो ताजा विद्रोह लोकतांत्रिक मूल्यों से प्रेरित है जिसने अरब जगत की जनता को सामूहिक रूप से सूत्रबद्ध किया है।

भारत के अरब जगत के साथ ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक संबंध विचारधारा के स्तर पर रहे हैं। दोनों ही देश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ एवं राष्ट्रवादी विचारधारा से ओतप्रोत रहे हैं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में मिस्र, फलस्तीन और सीरिया के प्रतिनिधि मंडल आते थे। भारत ने भी फलस्तीन राष्ट्रीय संघर्ष का सदैव दृढ़तापूर्वक समर्थन किया है। औपनिवेशक शासन से मुक्ति के लिए जूझ रहे अरब की स्वतंत्रता का भारत ने समर्थन किया। गुटनिरपेक्ष आंदोलन में नेहरू-नासिर की भूमिका ने भी भारत-अरब संबंधों को मजबूत किया। हमारे लिए यह अच्छा अवसर है कि वहां के बदलते परिदृश्य में नई लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के अनुरूप अपनी नीतियों को क्रियान्वित करे। दरअसल अरब जगत में लोकतांत्रिक रूपांतरण भारत के लिए दीर्घ अवधि में फायदेमंद साबित होगा।

 

यह तो होना ही था…

शशि थरूर (पूर्व विदेश राज्य मंत्री)

EGYPT-POLITICS-UNRESTअरब मुल्कों में हो रहे रोचक घटनाक्रम को कई कारकों की रोशनी में समझा जा सकता है। सबसे पहले तो यह उन देशों में हो रहा है जहां बरसों से सत्ता परिवर्तन नहीं हुआ। इस तरह की सरकारें देखने में तो स्थाई लगती हैं लेकिन अपनी कार्यकुशलता का चरम पहले ही खो चुकी होती हैं। मिस्न के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक करीब 30 सालों और ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति गत बीस सालों से सत्ता की कुर्सी पर काबिज थे। लीबिया के मुखिया चालीस बरसों से जमे हैं। यहां बात उन सभी मुल्कों की हो रही है जहां एक सरकार, एक तरह की व्यवस्था और एक ही शासक बरसों से सत्ता में नजर आ रहे हैं। लिहाजा हर समाज में एक मोड़ पर इस तरह की स्थिति आती है जहां लोग इसमें बदलाव के बारे में सोचने लगते हैं।

अक्सर यह देखा जाता है कि जनता ऐसे शासकों को तब बर्दाश्त करती है जब वो आर्थिक विकास के फायदे नीचे तक पहुंचाते हैं। लेकिन अगर अर्थव्यवस्था खराब हो, बेरोजगारी, मंदी और महंगाई के सिरदर्द के बीच लंबे समय तक सत्ता भी न बदले तो लोगों की बढ़ती हताशा हालात का एक बारूदी मिश्रण तैयार कर देती है। साथ ही बीते कुछ सालों में इस इलाके के मुल्कों की आबादी में भी इजाफा हुआ। इनमें से अधिकतर युवा बेरोजगार हैं। अपनी हर परेशानी और हताशा के लिए उन्हें सत्ता में बदलाव न होना जिम्मेदार नजर आता है। वहीं इनके अलावा ताजा हालात के पीछे मौजूद एक महत्वपूर्ण कारक है सूचना व संचार साधनों की उपलब्धता। इसने लोगों तक बहुत सारी सूचनाओं को पहुंचाया और बताया कि दुनिया और खासकर उनके आसपड़ोस में क्या हो रहा है। सूचनाओं के साथ लोगों को अचानक बहुत सारी संभावनाएं नजर आने लगती हैं।

 

स्वागत-योग्य है यह बयार

चिन्मय आर गरेखां (अरब क्षेत्र के लिए प्रधानमंत्री के पूर्व विशेष दूत)

जिने अल अबीदीन बेन अली की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए ट्यूनीशिया में शुरूहुई जैस्मिन क्रांति की खुशबू ने वर्षों से सत्ता में जमे अरब क्षेत्र के कई शासकों के तख्त हिला दिए हैं। ट्यूनीशिया के बाद पहले मिस्रऔर अब लीबिया में जो हो रहा है, वह सही मायनों में लोक आंदोलन और जन क्रांति है। इसे पूरी तरह से घरेलू क्रांति कहा जा सकता है क्योंकि यह न तो किसी बाहरी विचारधारा से प्रभावित है और न ही बाहर से पोषित। वहीं जिस तरह यह एक के बाद एक मुल्क में फैला है उसे डोमिनो इफेक्ट (साकारात्मक) कहा जा सकता है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ट्यूनीशिया हो या मिस्न या लीबिया..इन सभी मुल्कों में सरकारें बहुत दमघोंटू रही हैैं। अपनी जनता के प्रति उनका व्यवहार अमानवीय रहा है। मिस्न में तो मुबारक साहब ही नहीं उनसे पहले अब्दुल गमार नासिर का शासन भी काफी दमनकारी रहा है। उस दौरान भारतीय दूतावास में बिताए अपने दिनों के आधार पर मैं कह सकता हूं कि केवल राजनीतिक कारणों से वहां कई हजार लोग बरसों से कैद में रखे गए और इसे लेकर मिस्र के बुद्धिजीवियों में खासी नाराजगी थी।

अरब क्षेत्र में मौलिक अधिकारों को लेकर आई जागरुकता का खासकर भारत जैसे लोकतांत्रिक मुल्कों को तो स्वागत करना ही चाहिए। यह हमारी ऐतिहासिक जिम्मेदारी भी है और एक प्राचीन सभ्यता होने के नाते हमसे अपेक्षित भी। परिवर्तन की इस आंधी के बीच भारत समेत कई देशों की फिक्र तेल कीमतों में हो रहे इजाफे को लेकर है। यह लाजिमी भी है। लेकिन इन मुल्कों के राष्ट्रीय हालात के मद्देनजर दुनिया को यह कीमत चुकानी होगी। साथ ही मुझे नहीं लगता कि यह स्थिति बहुत लंबे समय तक ऐसे चलेगी। हालात स्थिर होंगे और तेल कीमतें भी नीचे आएंगी।

27 फरवरी को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “जैस्मिन की फैलती खुशबू” पढ़ने के लिए क्लिक करें

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27 फरवरी को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “जनमत” पढ़ने के लिए क्लिक करें

साभार : दैनिक जागरण 27 फरवरी 2011 (रविवार)
मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.

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