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नेताओं की राय

मुद्दा
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झारखंड


VINOD SINGH-ranchiविनोद कुमार सिंह (माले विधायक, बगोदर):

2009 में संपन्न विधानसभा चुनाव में मेरा कुल 2 लाख 37 हजार 509 रुपये और 81 पैसे खर्च हुआ। मेरे विचार से चुनाव पर खर्च बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है। जितना अधिक चुनाव खर्च बढ़ाएंगे, उतना अधिक गलत उपयोग होगा।

यदि प्रत्याशी वोट के बदले पैसे नहीं दें तो वर्तमान राशि पर्याप्त है। प्रत्याशी जो खर्च दिखाते हैं, उसकी भी जांच होनी चाहिए कि क्या वास्तव में उन्होंने चुनाव में उतना खर्च किया है।

Gopal K Patar-ranchiगोपाल कृष्ण पातर (जदयू विधायक, तमाड़):

साल 2009 के विधानसभा चुनाव में मेरा कुल चार लाख उन्यासी हजार दो सौ बयासी रुपए और निन्याबे पैसे खर्च हुआ था। जिस ढंग से हर दिन महंगाई बढ़ रही है, उस हिसाब से चुनाव खर्च में आनुपातिक बढ़ोतरी ठीक रहेगी। निर्धारित राशि से कम खर्च करके भी उम्मीदवारों द्वारा चुनाव जीतने का मतलब यह नहीं कि ‘बजट’ ही कम कर दिया जाए। मूल्य सूचकांक के आधार पर चुनाव खर्च में बढ़ोतरी की जानी चाहिए।


बिहार


Radha Mohan Singh-patnaराधामोहन सिंह (भाजपा सांसद, मोतिहारी):

चुनाव खर्चीला हुआ है। महंगाई भी बढ़ी है। ऐसे में चुनाव खर्च की सीमा 25 लाख से बढ़ाकर 40 लाख करना सही कदम होगा। परन्तु, अगर बात सुधार की है, तो चुनाव आयोग को स्वयं ही यह खर्च वहन करना चाहिए। भले इसके लिए खर्च की जाने वाली राशि की सीमा कम कर दी जाए। प्रत्याशी के चुनाव प्रचार के लिए सरकार खुद इंतजाम करे और पूरा खर्च वहन करे। मैंने लोकसभा चुनाव में खर्च की निर्धारित सीमा से काफी कम राशि खर्च की।


Shyaman rajak-patnaश्याम रजक (जदयू विधायक, फुलवारी शरीफ):

मैं विधानसभा चुनाव के लिए खर्च की सीमा बढ़ाए जाने का विरोध नहीं करूंगा, परन्तु अच्छा हो कि चुनाव आयोग खुद ही सारे इंतजाम करे। सारे खर्च आयोग ही वहन करे। सभी प्रत्याशियों के लिए एक मंच बना दे, और उन्हें अपना प्रचार करने के लिए समय आवंटित करे। लोग वहीं आकर उनकी बातें सुनेंगे और अपनी पसंद का प्रत्याशी चुनेंगे। ऐसी ही व्यवस्था दूसरे मामलों में भी हो। मैंने इस बार विधानसभा चुनाव में लगभग छह लाख रुपये खर्च किए। पहली बार 1995 में जब चुनाव लड़ा, तब मात्र 35,000 रुपये खर्च हुए थे। 2000 के चुनाव में 65,000 रुपये खर्च हुए।


उत्तर प्रदेश


vishwanath singh-lkoविश्वनाथ सिंह (विधायक, फाजिल नगर ):

खर्च की सीमा घटाने-बढ़ाने से कुछ नहीं होना वाला। खर्च की सीमा तो गाड़ी, पोस्टर, बैनर और सभाओं के आयोजन के लिए तय होती है। दरअसल चुनावी प्रक्रिया में तमाम दूसरी बुराइयां आ गई हैं। अब मतदान से पहले नकद रुपया बांटा जाता है। शराब बांटी जाती हैं। हम जब तक इन बुराइयों को नहीं खत्म कर पाएंगे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संभव ही नहीं है। चुनाव आयोग जो खर्च की सीमा तय करता है, वह शराब और नकद बांटने के लिए तो तय नहीं करता। कोई प्रत्याशी अपने खर्च में यह दिखाता भी नहीं है कि उसने खर्च सीमा के तहत इतनी रकम नकद या इतने रुपये की शराब बांटी।


P.L. Punjaपीएल पुनिया (सांसद, बाराबंकी):

अगर चुनाव का सारा खर्च केंद्र सरकार और आयोग मिलकर उठाएं तो चुनाव पैसे वालों का खेल नहीं बन पाएगा। पार्टी और प्रत्याशियों पर खर्च का जिम्मा छोड़ देने से लाख सीमा बांध दें लेकिन बढ़ते खर्च को कम नहीं किया जा सकता है। आज तक आयोग तय सीमा से अधिक खर्च करने वाले किसी प्रत्याशी को पकड़ भी नहीं पाया है। इसका मतलब आयोग की मशीनरी कामयाब साबित नहीं हो रही है। खर्च सीमा बढ़ा भी दी गई तो जो लोग पैसा खर्च कर चुनाव जीतना चाहते हैं, उनका खेल जारी रहेगा। आयोग को चाहिए कि हर निर्वाचन क्षेत्र में जनता तक पहुंच के हिसाब से प्वाइंट्स तय कर दे। उन प्वाइंट्स पर खुद क्वालीफाइंग स्पीच का आयोजन करे। सभी प्रत्याशी वहां पहुंच कर अपनी नीतियां जनता को बताएं।


उत्तराखंड


vijay bahuguna1ddnविजय बहुगुणा (कांग्र्रेस सांसद, टिहरी):

जो लोग जमीन से जुड़े होते हैं, वह चुनाव में कम खर्च करते हैं। चुनावों में काले धन का उपयोग न किया जा सके इसके लिए चुनाव आयोग तथा आयकर विभाग को इस पर पैनी नजर रखनी होगी। चुनाव के लिए उम्मीदवार का अलग से एकाउंट खोलने संबंधी आयोग का निर्णय एक अच्छा कदम है। चुनावी खर्च सरकार द्वारा वहन किया जाना भी अव्यवहारिक नहीं है लेकिन देश की आर्थिक स्थिति इतनी मजबूत नहीं हुई है कि चुनावी खर्च उठा सके।


K C singh baba-ddnकेसी सिंह बाबा (कांग्रेस सांसद, नैनीताल):

चुनाव खर्च बढ़ाने वाला प्रस्ताव उचित है। इससे उम्मीदवारों को चुनाव के वक्त जरूरत के मुताबिक खर्च करने में हाथ नहीं खींचना पड़ेगा। वास्तव में मैैं चुनाव में कम खर्च का हिमायती हूं। चुनाव प्रचार में धन बहाने से बेहतर होगा कि सभी प्रत्याशी टेलीविजन के जरिये अपनी बात जनता के सामने रखें। जनता जागरूक और पढ़ी-लिखी हो। टेलीविजन पर ही उम्मीदवारों के बीच बहस रखी जाए। इसी आधार पर जनमत बनाया जाए। यह तब संभव हो सकेगा, जब जनता जागरूक होगी। यदि यह संभव हुआ तो अपने आप चुनावी खर्च कम हो जाएगा।


(राज्य ब्यूरो)

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