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चुनाव खर्च की सीमा:
चुनाव में कोई भी उम्मीदवार अपनी मनमर्जी से खर्च करने के लिए स्वतंत्र नहीं है। कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रूल्स, 1961 के नियम 90 में निहित कुल चुनाव खर्च की अधिकतम सीमा से इसे अधिक नहीं होना चाहिए। अगर कोई ऐसा करता है तो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123(6) के अधीन यह एक भ्रष्ट आचरण माना जाएगा।
अलग-अलग प्रावधान:
वर्तमान में बड़े राज्यों (उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश इत्यादि) के लिए लोकसभा चुनाव की अधिकतम खर्च सीमा 25 लाख रुपये और विधानसभा चुनावों की खर्च सीमा 10 लाख रुपये तय है। 1999 में यह खर्च सीमा लोकसभा और विधानसभा के लिए क्रमश: 15 लाख और छह लाख रुपये थी।
खर्च का लेखा-जोखा:
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 77 के अधीन लोकसभा या विधानसभा के चुनाव में प्रत्येक उम्मीदवार को निर्वाचन संबंधी सभी खर्चों का विवरण देने का प्रावधान किया गया है। इसमें उम्मीदवार को उसके नामांकन वाले दिन से नतीजे आने तक हुए सभी खर्चे का ब्यौरा देना होता है। सभी उम्मीदवारों को निर्वाचन के परिणाम की घोषणा से 30 दिन के अंदर इस लेखा विवरण की एक सही प्रतिलिपि दाखिल करनी होती है।
सक्षम अधिकारी:
उम्मीदवारों द्वारा निर्वाचन व्ययों का लेखा प्रत्येक राज्य में उस जिले के जिला निर्वाचन अधिकारी के पास दाखिल करना होता है जिसमें उस उम्मीदवार का निर्वाचन क्षेत्र पड़ता है। संघ राज्य क्षेत्रों के मामले में ऐसे लेखे संबंधित रिटर्निंग ऑफिसर के पास दाखिल करने होते हैैं।
चुनाव खर्च दाखिल न करने पर दंड: लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 10क के अधीन यदि निर्वाचन आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंच जाता है कि कोई व्यक्ति चुनाव खर्चों का विवरण समय से और कानून के अनुसार दाखिल करने में असफल रहा है और इस असफलता के लिए उसके पास कोई तर्कसंगत और न्यायोचित कारण नही है तो उसे संसद के दोनों सदनों या किसी राज्य विधानसभा, या विधान मंडल का सदस्य होने या निर्वाचित होने के लिए 3 वर्ष की अवधि के लिए अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
जनमत
क्या चुनाव खर्च की अधिकतम सीमा बढ़ाना जरूरी है?
19% हां
81% नहीं
क्या पैसे के बल पर चुनाव जीता जा सकता है?
65% हां
35% नहीं
आपकी आवाज
देश वैसे ही अरबों रुपये के खर्च में डूबा है। चुनाव खर्च में जो रुपये लगते हैं वो सिर्फ देश को कर्ज में डुबोते हैं। चुनाव का खर्च बढ़ाने के बजाय कम कर दिया जाना चाहिए। इस पैसे का उपयोग देश के विकास में किया जाना चाहिए।
-संतोष कुमार (कानपुर)
न्यायिक सक्रियता को पदलोलुपता कमजोर कर देती है। सामाजिक संरचना के साथ करीब से जुड़े कार्यपालिका और विधानपालिका से न्याय की सबसे अधिक उम्मीद बनती है। कार्यपालिका से जुड़े कार्यपालकों की उम्र सीमा होती है, परंतु वे उस सीमा के बाद भी पद के भूखे होते हैं। मोटा-मोटी यही स्थिति न्यायपालिका की भी है। – हरिवंश नारायण (पटना)
भ्रष्टाचार के दानव ने न्यायपालिका को भी प्रभावित करने का प्रयास किया है परन्तु उस सीमा तक नहीं जिस सीमा तक विधानपालिका और कार्यपालिका
-डा. तरुण अरोड़ा (फरीदकोट)
पिछले कई वर्षों से न्यायालयों ने कई राष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी सक्रियता दिखाई है जिसमें कई समस्याओं का कारगर समाधान भी प्राप्त हुआ है। आज जिस तरह से देश में भ्रष्टाचार की आग चारों तरफ फैल रही है, उसे देखकर कहा जा सकता है कि जनहित के लिए न्यायालयों की मदद एक बहुत बड़ी आवश्यकता बन पड़ी है।
-अल्का चंद्रा (काकादेव, कानपुर)
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